"تنطلق الرواية من حادثة واقعية حصلت في الهند يوم 7 ديسمبر 1992 حين قامت جماعة هندوسية متطرفة بهدم مسجد عتيق يعود إلى خمسة قرون بدعوى أن المسجد محل ميلاد إله الهندوس راما.
تدور أحداث الرواية حول انعكاسات هذه الحادثة التي أشعلت حربًا طائفية بين المسلمين والهندوس في الهند وبنغلادش، ترصد الكاتبة آثار هذه الفتنة الطائفية على حياة أسرة بنغلادشية هندوسية تتكون من: رب الأسرة سودهاموي ... الأم كيرونموي...الابن سورنجان ... و أخته نيلانجان. تدخل أسرة ' سودهاموي' في حالة من الذعر والترقب خشية التعرض للانتقام من المتشددين الإسلاميين. الأخت نيلانجان تلح على أخيها أن يوفر لهم ملجأ يختبئون فيه ريثما تهدأ عاصفة الانتقام التي تشنها الأغلبية المسلمة في بنجلاديش على الأقلية الهندوسية.
سورنجان لا يحرك ساكنًا، وكذلك الأب يرفض مغادرة بنجلاديش إلى الهند كما فعل كثير من الهندوس البنغال، تصيح فيهم نيلانجان : ' يمكنكم أن تبقوا حتى تتعفنوا هنا، ولكن سأذهب'.
تترك نيلانجان البيت وتختبيء عند صديقها المسلم، لكن ماذا سيحل بها بعد ذلك؟وماذا سيحل بعائلتها؟ استمع الآن."
"A savage indictment of religious extremism and man's inhumanity to man, Lajja was banned in Bangladesh but became a bestseller in the rest of the world. This brand-new translation marks the twentieth anniversary of this controversial novel. The Dattas Sudhamoy and Kironmoyee and their children, Suronjon and Maya have lived in Bangladesh all their lives. Despite being members of a small Hindu community that is terrorized at every opportunity by Muslim fundamentalists, they refuse to leave their country, unlike most of their friends and relatives. Sudhamoy believes with a naive mix of optimism and idealism that his motherland will not let him down. And then, on 6 December 1992, the Babri Masjid at Ayodhya is demolished by a mob of Hindu fundamentalists. The world condemns the incident, but its immediate fallout is felt most acutely in Bangladesh, where Muslim mobs begin to seek out and attack the Hindus. The nightmare inevitably arrives at the Dattas' doorstep and their world begins to fall apart."
"तसलीमा नसरीन की 'निर्वासन' एक स्त्री का दिल दहला देने वाला ऐसा सच्चा बयान है जिसमें वह खुद को अपने घर बंग्लादेश, फिर कलकत्ता (पश्चिम बंगाल) और बाद में भारत से ही निर्वासित कर दिए जाने पर, दिल में वापसी की उम्मीद लिए पश्चिमी दुनिया के देशों में एक यायावर की तरह भटकते हुए अपना जीवन बिताने के लिए मजबूर कर दिए जाने की कहानी कहती है। इसमें उन दिनों में लेखिका के दर्द, घुटन और कशमकश के साथ धर्म, राजनीति और साहित्य की दुनिया की आपसी मिली भगत का कच्चा चिट्ठा सामने आता है। कई तथाकथित संभ्रान्त चेहरे बेनकाब होते हैं। बंग्लादेश में जन्मी लेखिका तसलीमा नसरीन, जो मत प्रकाश करने के अधिकार के पक्ष में पूरे विश्व में एक आन्दोलन का नाम हैं और जो अपने लेखन की शुरुआत से ही मानवतावाद, मानवाधिकार, नारी-स्वाधीनता और नास्तिकता जैसे मुद्दे उठाने के कारण धार्मिक कट्टरपंथियों का विरोध झेलती रही हैं, की आत्मकथा के तीसरे खण्ड -'द्विखण्डतो' पर केवल इस आशंका से की इससे एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों की धार्मिक भावनाएँ आहत हो सकती हैं, पश्चिम बंगाल की सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया। पूरे एक साल नौ महीने छब्बीस दिन निषिद्ध रहने के बाद, हाईकोर्ट के फैसले पर यह पुस्तक इस प्रतिबन्ध से मुक्त हो सकी। पश्चिम बंगाल और बंग्लादेश में अलग-अलग नामों से प्रकाशित इस पुस्तक के विरोध में उनके समकालीन लेखकों ने कुल इक्कीस करोड़ रुपए का दावा पेश किया। पर यह सब कुछ तसलीमा को सच बोलने और नारी के पक्ष में खड़ा होने के अपने फैसले से डिगा नहीं सका। 'निर्वासन' भी इसी की एक बानगी है।"